Essay on Politics in Hindi – इस पोस्ट में राजनीति पर बेहतरीन निबन्ध दिया गया हैं. इसमें आपको राजनीति और धर्म, विद्यार्थी और राजनीति आदि विषयों पर निबंध दिया गया हैं.
राजनीति और धर्म | Essay on Politics and Religion in Hindi
राजनीति दूसरों पर राज करने की नीति है और धर्म दूसरों के हृदय पर राज करने का साधन. दोनों में खतरे ही खतरें हैं. दोनों परम शक्तिशाली हैं. आम आदमी दोनों के चरण छूता हैं. राजनेता के इसलिए कि वह सब सांसारिक कामों में हस्तक्षेप रखता हैं और धार्मिक लोगों के इसलिए कि वे पूज्यनीय हैं. प्रश्न यह है कि क्या दोनों का मेल आदमी को परम संतोष दे सकता है या और भी परेशानी में डाल सकता हैं. क्या राजनीति और धर्म में मेल होना चाहिए? मेल हो तो राजनीति ऊपर होनी चाहिए या धर्म? इस बारें में भारतीय चिन्तन स्पष्ट कहता है कि धर्म का स्थान ऊँचा है. राजनीति धर्म के साये में ही चलनी चाहिए. धर्म का काम है राजा और राजकर्मचारियों को भी व्यवहार के नियम सिखाना और उन पर नियन्त्रण रखना. भारतीय संविधान धर्म को राजनीति से बिलकुल अलग और निरपेक्ष रखता है. उसके अनुसार राजनीति का एक ही धर्म हैं – संविधान. राजनीति को संविधान के अनुसार चलना चाहिए, न कि धर्म के अनुसार. राजनेता के लिए सभी धर्म समान होने चाहिए. उसे किसी भी धर्म के प्रति पक्षपात नहीं रखना चाहिए. यही सही नीति हैं. जिस देश में एक धर्म को सरकार का प्रश्रय मिलता है, वहाँ अपने-आप भेदभाव और वैमनस्य पैदा होते है और सदा अशांति बनी रहती है. भारत पहले ही दो धर्मों के हस्तक्षेप के कारण अपने तीन टुकड़े करवा चूका हैं. पकिस्तान और बांग्लादेश क्यों बनें? धर्म के हस्तक्षेप के कारण. यदि राजनीति में धर्म का हस्तक्षेप न होता तो न कोई राजनेता मुस्लिमों के लिए अलग देश की मांग करता और न ही भारत के टुकड़े होते. अंग्रेजों की कूटनीति और कुछ भारतीय राजनेताओं के अहंकार ने भी भारत के टुकड़े करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कई बार हमारे राजनेता वोटों के ख़ातिर धर्मगुरूओं की शरण में जाते हैं, उनके आश्रमों और डेरों की प्रक्रिमा करते हैं और उनके चरण-चुम्बन करते हैं. यह देखकर धर्मगुरु और डेरा संचालक अपने-आप को खुदा मान बैठते है और वे अपने डेरों, मस्जिदों से वोट डालने के लिए फतवे जारी करने लगते हैं. इससे वैमनस्य बढ़ता है. यह धर्म और राजनीति का खतरनाक खेल है. इससे सदा बचना चाहिए वरना समय-समय पर भीषण दंगे और रक्तपात होते रहेंगे. राजनीति और धर्म को अलग रखना चाहिए.
विद्यार्थी और राजनीति या राजनीति में युवा वर्ग का योगदान | Eassy on Student and Politics in Hindi
विद्यार्थी और राजनीति का सम्बन्ध स्वतन्त्रता आन्दोलन से शुरू हुआ. न तो इससे पहले कभी विद्यार्थी राजनीति में आयें और न ही इस पर चर्चा हुई. वास्तव में स्वतन्त्रता आन्दोलन भी राजनीति नहीं थी, देशभक्ति थी. वह अपनी मातृभूमि की आजदी का प्रश्न था. इसलिए महात्मा गाँधी ने देश के नवयुवकों को अंग्रेजों को देश से बाहर खदेड़ने के लिए आन्दोलन में झोंका. आजादी के बाद आन्दोलन समाप्त हो गया और राजनीति शुरू हो गई. यह दुर्भाग्यपूर्ण था. विद्यार्थी का काम विद्या का अर्जन करना है, उसका उपयोग करना नहीं हैं. वह जीवन-कला सीखने का काल है, प्रयोग का काल नहीं. विद्यार्थी अवस्था में उसका ध्यान केवल और केवल विद्या प्राप्ति की ओर होना चाहिए. राजनीति तो वैसे भी छल-कपट का क्षेत्र हैं. सुकरात ने कहा था – राजनीति अपराधियों के लिए अंतिम शरणालय है.
ऐसे क्षेत्रों में विद्यार्थियों को झोंकना अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना है. जो छात्र इस काल में भटक जाते है, वे जीवनभर उसका दुष्परिणाम भुगतते है. कुछ विद्वान् कहते है कि विद्यार्थियों को राजनीति का पहला पाठ विद्यालयों, महाविद्यालयों में ही सीख लेना चाहिए. परन्तु कॉलेज और विश्वविद्यालय छात्र-राजनीति का दुष्परिणाम देख चुके हैं. जहाँ चुनाव होते हैं, वहाँ अक्सर हड़ताल, बंद, आन्दोलन और लड़ाई-झगड़े होते हैं. अपरिपक्व विद्यार्थियों के हाथों में राजनीति का बारूद दे देना बंदर के हाथ में नाख़ून देना हैं. छोटी उम्र में राजनीति के दांवपेंचों में उलझना शिक्षा का माहौल खराब करना है. यहीं कारण है कि बहुत से प्रान्तों में विश्वविद्यालयों में चुनावों पर प्रतिबन्ध है. इसलिए वहाँ शांति और अध्ययन का वातावरण है. अतः विद्यालयों को विद्या-प्राप्ति का आदर्श स्थल बनाने के लिए वहाँ राजनीति का प्रवेश बिलकुल नहीं होना चाहिए.
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