14 September Hindi Diwas – Why am I proud of Hindi? – बचपन में जिस भाषा को सुना, समझा और बड़ा होकर बोला उससे प्यार होना स्वाभाविक है. किसी भाषा से इंसान तब प्यार करता है जब उस भाषा में रची हुई दिल छू लेने वाली रचनाओं को पढता है. मैंने कई कवियों को पढ़ा हर कवि हर लेखक में कुछ ऐसी ख़ास बात होती थी कि उनके शब्द दिल और दिमाग में उतर जाते है.
आज मैं ऑनलाइन इन्टरनेट पर यूँ ही सर्च कर रहा था तो हिंदी की एक बहुत ही प्यारी रचना मिली. यह मुझे काफी पसंद आई. मैं इसे आप के साथ शेयर किये बिना रह नही पाया.आशा करता हूँ कि आपको भी पसंद आएगी.
इसलिए हिंदी नायाब है
छू लो तो चरण
अड़ा दो तो टांग
धँस जाए तो पैर
फिसल जाए तो पाँव
आगे बढ़ाना हो तो कदम
राह में चिन्ह छोड़े तो पद
प्रभु के हो तो पाद
बाप की हो तो लात
गधे की पड़े तो दुलत्ती
घुँघरू बाँध दो तो पग
खाने के लिए टंगड़ी
खेलने के लिए लगड़ी
अंग्रेजी में सिर्फ – LEG
क्यों मुझे हिंदी पर गर्व है
रामधारी सिंह दिनकर मेरे पसंदीदा कवि है. मैंने लगभग इनकी सभी रचनाओं को पढ़ा है. अगर हिंदी दिवस पर मैं ऐसे महान कवि को याद ना करूँ तो हिंदी दिवस का जश्न मनाना कुछ अधूरा-अधूरा सा लगता है. दिनकर जी की कुछ बेहतरीन रचनाओं के अंश को आप भी पढ़े.
शांति नहीं तब तक जब तक
सुख-भाग न नर का सम हो
नही किसी को बहुत अधिक हो
नहीं किसी को कम हो
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतलाके,
पाते हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखलाके|
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींचकर ही रहते हैं इतिहासों में लीक
‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जिनके जीवन में हमेशा धन का अभाव रहा और किस्मत ने भी दुःख देने में कोई कसर नही छोड़ी थी. इन सबको सहते हुए निराला जी ने हिंदी साहित्य में योगदान दिया है. वह हर भारतीय के लिए प्रेरणादायक है. इन्हें महाप्राण भी कहा जाता है क्योंकि इनका जीवन दुखों और लाचारियों से भरा था. फिर भी इन्होंने अपने सिद्वान्तों के साथ समझौता नही किया. महाप्राण निराला की रचनाओं को पढ़कर आँखों में आँसू आ जाते है.
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।
कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।
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