Gyan Margi Chaupaiyan By Saurabh Mishra Hind – यह ज्ञानमार्गी चौपाइयां सब रस कवि “सौरभ मिश्रा हिन्द” जी की कृत है, जिसमें ब्रज, अवधी बघेली, हिंदी व संस्कृत के साधारण शब्दो का मिश्रण है।
ज्ञानमार्गी चौपाइयां | Gyanamargi Chaupaiyan
लालच होत मंगलही कारी, अति लालच मंगल हारी ।
दरिद्रेन लालच कला समाना, अति धन संग्रह बला बखाना ।।
अर्थ – लालच मंगलकारी होता है, किन्तु अधिक लालच करना मंगल को हरण करने जैसा है ।
दलिद्रता में लालच एक कला के समान होता है किन्तु अधिक धन का संग्रह करना यह बला यानी कि बाधा बताया गया है ।।
जाति बड़ नही करम महाना, कर्तव्य करम श्रेष्ठई जाना ।
करमेन राघव क्षत्रि पुजाई, विप्र दशानन करमेन असुर कहाई ।।
अर्थ – जाति से कोई बड़ा नही कर्म से महान होता है, कर्तव्य कर्म को ही श्रेष्ठ जानना चाहिए ।
कर्म से ही राघव यानी कि भगवान श्री राम क्षत्रिय होकर भी पुंजनीय हुए और कर्म से ही दशानन रामण ब्राह्मण हो कर भी असुर कहाया ।।
भलेन जन दुजेउ भल माना, होत जे जस दूज तस जाना ।
जे जन जसई करम दृष्टि पाई, तसई सकल उन देतु दिखाई ।।
अर्थ – अच्छे लोग दूसरे को भी अच्छा मानते है, जो जिस तरह के होते है दूसरे को भी वैसा ही जानते है ।
जो लोग जिस प्रकार की कर्म दृष्टि पाते है यानी कि उनके देखने की दृष्टि जिस प्रकार की होती है वैसा ही उन्हें सब कुछ दिखाई देता है ।।
कला काल प्रेम शांति ज्ञनाई, मूल्य न होत न खरीदइ जाई ।
उद्यमेन अभ्यासेनु जे सुगम कई जावा, सो नर इ पाचऊ पावा ।।
अर्थ – कला, समय, प्रेम, शांति व ज्ञान इनका ना तो कोई मूल्य होता है और ना ही ये ख़रीदे जा सकते है ।
किन्तु परिश्रम व अभ्यास करते रहने से जो इसे आसान कर लेते हैं वे मनुष्य इन पाँचो को ही प्राप्त कर लेते है ।।
जे प्रेमहि सकल प्रदार्थ लुटाई, असमंजस नाहि मंद मुस्काई ।
स्वामीत्व छाड़ि जह दासही भावा, ताहि जानहु प्रेम सुभावा ।।
अर्थ – जो प्रेम में सारे ही प्रदार्थ लुटाने वाला हो, जो दुविधा में नही मन्द मुस्काने वाला हो ।
जहा स्वामी भाव को छोड़ कर दास भाव हो वही समझना चाहिए कि प्रेम का सुंदर भाव है ।।
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