मीराबाई की जीवनी | Mirabai Biography in Hindi

Saint Mirabai Biography in Hindi – माँ मीराबाई एक आध्यात्मिक कवि और भगवान श्रीकृष्णा की बहुत बड़ी भक्त थी. ऐसा माना जाता है कि माँ मीराबाई ने आठ वर्ष की उम्र में ही भगवान श्रीकृष्ण को अपना पति मान लिया था.

Mirabai Biography in Hindi

जोधपुर के संस्थापक राव जोधाजी की प्रपौत्री, जोधपुर नरेश राजा रत्नसिंह की पुत्री और भगवान कृष्ण के प्रेम में दीवानी मीराबाई का जन्म राजस्थान के चौकड़ी नामक ग्राम में सन् 1498 ई. में हुआ था. बचपन में ही माता-पिता का निधन हो जाने के कारण ये अपने पितामह राव दूदा जी के पास रहती थी और प्रारम्भिक शिक्षा भी उन्हीं के पास रहकर प्राप्त की थीं. राव दूदा जी बड़े ही धार्मिक एवं उदार प्रवृति के थी, जिनका प्रभाव मीरा के जीवन पर पूरी तरह से पड़ा था.

मीराबाई का संक्षिप्त जीवन परिचय

नाम – मीराबाई
जन्मतिथि – 1498
जन्मस्थान – ग्राम : चौकड़ी, राजस्थान
माता का नाम – वीर कुमारी
पिता का नाम – रत्नसिंह
पति का नाम – भोजराज
प्रसिद्धि का कारण – भक्तिकाव्य और कृष्णभक्ति के लिए
धार्मिक मान्यता – हिन्दू
गुरू का नाम – संत रैदास
मृत्युतिथि – 1547
मृत्युस्थान – द्वारका, गुजरात

मीराबाई का विवाह चितौड़ के महाराजा राणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ जो आगे चलकर महाराणा कुंभा कहलाएं। विवाह के कुछ समय बाद ही मेरा विधवा हो गई. अब तो इनका सारा समय श्रीकृष्ण-भक्ति में ही बीतने लगा. मेरा श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर उनके विरह में पद गाती और साधु-संतों के साथ कीर्तन एवं नृत्य करती। इनके इस प्रकार के व्यवहार ने परिवार के लोगो को रूष्ट कर दिया और उनहोंने मेरा का हत्या करने का कई बार असफल प्रयास किया।

अंत में राणा के दुर्व्यवहार से दुखी होकर मेरा वृन्दावन चली गयी. मीरा की कीर्ति से प्रभावित होकर राणा ने अपनी भूल पर पश्चाताप किया और इन्हे वापस बुलाने के लिए कई सन्देश भेजे; परन्तु मेरा सदा के लिए सांसारिक बंधनों को छोड़ चुकी थी.

Mirabai Story in Hindi

मीराबाई और भगवान् श्रीकृष्ण के प्रेम की कई अमर कहानियां सुनने को मिलती है. इन्हें आप दंत कथा कहे या सत्यकथा कहे यह आप पर निर्भर करता है लेकिन माँ मीराबाई ने पूरी दुनिया को बताया कि ईश्वर को कैसे भक्तिमार्ग से पाया जा सकता है.

मीराबाई और श्रीकृष्ण के विवाह की कहानी

मीराबाई के बचपन में हुई एक घटना की वजह से उनका कृष्ण-प्रेम अपनी चरम अवस्था तक पहुंचा। एक दिन उनके पड़ोस में किसी बड़े आदमी के यहाँ बारात आई. सभी औरतें छत पर खड़ी होकर बारात देख रही थी. मीरा भी बारात देखने लगी. बारात को देख मीरा ने उत्सुकतावश अपनी माता से प्रश्न पूछ कि मेरा दूल्हा कौन है? इस उन की माता ने कृष्ण की मूर्ति की ओर इशारा कर के कह दिया कि यही तुम्हारे पति ( दूल्हा ) है. बस यह बात मेरा के बालमन में एक गांठ की तरह बंध गई.

मीराबाई और स्वामी हरिदास की कहानी

वृन्दावन में एक शाम गायन हुआ जिसमें मीराबाई ने गाया – “मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई” जिसे सुनकर तानसेन और बैजू बावरा के गुरू स्वामी हरिदास ने कहा कि मीराबाई तुमने गाया तो अच्छा पर तुम्हारा भजन राग में नहीं है. तब मीराबाई ने कहा जी महाराज पता है कि मैंने राग में नहीं गया है क्योंकि मनुष्यों को रिझाने के लिए राग में गाया जाता है परन्तु ईश्वर को रिझाने के लिए अनुराग में गाया जाता है.

मीराबाई की पदावली और रचनाएं

बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोर मुकुट मकराकृत कुण्डल, अरूण तिलक दिये भाल।।
मोहनि मूरति साँवरि सूरति, नैना बने बिसाल।
अधर-सुधा-रस मुरली राजत, उर बैजंती-माल।।
छुद्र घंटिका कटि-तट सोभित, नूपुर सबद रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।


हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी, चट बढ़ायो चीर।।
भगत कारण रूप नर हरि, धरयो आप समीर।।
हिरण्याकुस को मारि लीन्हो, धरयो नाहिन धीर।।
बूड़तो गजराज राख्यो, कियौ बाहर नीर।।
दासी मीरा लाल गिरधर, चरणकंवल सीर।।


मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।।
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई।।
छांडि दई कुलकी कानि कहा करिहै कोई।
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई।।
चुनरी के किये टूक ओढ़ लीन्ही लोई।
मोती मूंगे उतार बनमाला पोई।।
अंसुवन जल सीचि सीचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आंणद फल होई।।
दूध की मथनियाँ बड़े प्रेम से बिलोई।
माखन जब काढ़ि लियो छाछ पिये कोई।।
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोई ।।


नस नस में बिजुरिया थीरक गई रे
प्रेम इतना भरा मैं छलक गई रे

चढ़ती नदीयां कभी बस में होती नहीं
जाग जाए प्रित तो कभी सोती नहीं
सौ भंवर लांघ के मेरे पग चल पड़े
भवें तन तन गई माथे पर बल पड़े
घोर संकट में है आज मर्यादाएं
मेरे सर से चुनरिया सरक गई रे
प्रेम इतना भड़ा मैं छलक गई रे

नैन जुड़ते ही सिद्धांत टूटे मेरे
हो गई मान अभिमान झूठे मेरे
लाओ मेरे लिए विष के प्याले भरो
प्रेम अपराध है तो क्षमा ना करो
छूट कर फिर करुंगी ये अपराध मैं
खुल गए मेरे हाॅंथ मेरी झिझक गई रे
प्रेम में इतना भरा में छलक गई रे

प्रेम की आग में जल गई मैं जहां,
रंग रंग के खिले बेल बूटे वहां
तन पर मेरे अब उन नैनो की छाप है
कौन सोचे कि ये पुण्य है कि पाप है
राह सच की दिखाओ किसी और को
भटकना था मुझको भटक गई रे
प्रेम इतना भरा मैं छलक गई रे

ये कहां धर्म ग्रंथों को एहसास है
गहरी पाताल से हृदय की प्यास है
ज्ञानियों में कहां ज्ञान ऐसा जगे
पीर वही जाने तीर जिसको लगे
डोल उठा जो थरथर जिया बाबरा
कांच के जैसे मैं तो दरक गई रे
प्रेम इतना भरा में छलक गई रे


मीराबाई का साहित्यिक परिचय

मीरा के काव्य का मुख्य स्वर कृष्ण-भक्ति है. इनके काव्य में इनके हृदय की सरलता तथा निश्छलता स्पष्ट रूप से प्रकट होती है. इनकी भक्ति-साधना ही इनकी काव्य-साधना है. दाम्पत्य-प्रेम के रूप में व्यक्त इनके सम्पूर्ण काव्य में, इनके हृदय के मधुर भाव गीत बनकर बाहर उमड़ पड़े हैं. विरह की स्थिति में इनके वेदनापूर्ण गीत अत्यंत हृदयस्पर्शी बन पड़े है. इनका प्रेम पद सच्चे प्रेम की पीर से परिपूर्ण है. भाव-विभोर होकर गाये गये तथा प्रेम एवं भक्ति से ओत-प्रोत इनके गीत; आज भी तन्मय होकर गाये जाते है. कृष्ण के प्रति प्रेमभाव की व्यंजना ही इनकी कविता का उद्देश्य रहा है.

मीराबाई की रचनाएँ

मीरा की रचनाओं में इनके हृदय की विह्वलता देखने को मिलती है. इनके नाम से सात-आठ रचनाओं के उल्लेख मिलते है –

  • नरसी जी का मायरा
  • राग गोविन्द
  • गीत गोविन्द की टीका
  • राग-सरोठ के पद
  • मीराबाई के मलार
  • गरबा गीत
  • राग विहाग तथा फुटकर पद
  • इनकी प्रसिद्धि का आधार “मीरा पदावली” एक महत्वपूर्ण कृति है.

मीराबाई की भाषाशैली

मीरा ने ब्रजभाषा को अपनाकर अपने गीतों की रचना की. इनके द्वारा प्रयुक्त इस भाषा पर राजस्थानी, गुजराती एवं पंजाबी भाषा की स्पष्ट छाप परिलक्षित होती है. इनकी काव्य भाषा अत्यंत मधुर, सरस और प्रभावपूर्ण है. इनके सभी पद गेय है. इन्होंने गीतिकाव्य की भावपूर्ण शैली अथवा मुक्तक शैली को अपनाया है. इनकी शैली में हृदय की तन्मयता, लयात्मकता एवं संगीतात्मकता स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है.

मृत्यु

कहा जाता है कि मीरा एक पद की पंक्ति – “हरि तुम हरो जन की पीर” गाते-गाते भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गयी थी. मीराबाई की मृत्यु द्वारका, गुजरात में सन् 1547 ई. में हुई थी.

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