उनकी बातों में
प्यार के तेवर कम थे,
पर जब मैने उनकी आँखों में
झांका तो हम ही हम थे…
अगर कुछ सीखना ही है तो
आँखों को पढ़ना सीख लो…
वरना लफ्जों के मतलब
तो हजारों निलते हैं…
बचपन में तो…
शामें भी हुआ करती थी
अब तो बस सुबह के बाद
रात हो जाती हैं…
बस खुद्दारी ही मेरी दौलत हैं,
जो मेरी हस्ती में रहती हैं,
बाकी जिन्दगी तो फकीरी हैं,
वो अपनी मस्ती में रहती हैं.
हम नफरत के काबिल थे
तो नफरत से ही मार देते…
क्यों अपनी महफिल में बुलाकर
प्यार से कह दिया – कौन हो तुम?
थोड़ी मस्ती थोडा सा
ईमान बचा पया हूँ,
ये क्या कम हैं
मैं अपनी पहचान
बचा पाया हूँ,
कुछ उम्मीदें, कुछ सपने
कुछ महकी-महकी यादें
जीने का मैं इतना ही
सामन बचा पाया हूँ…