सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता | Suryakant Tripathi Nirala Poems in Hindi

Suryakant Tripathi Nirala Poems in Hindi ( Suryakant Tripathi Nirala Ki Kavita ) – सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ जी की प्रसिद्धि का कारण उनकी कवितायें हैं. उनकी कुछ प्रसिद्ध काव्य रचना इस पोस्ट में दिए गये हैं. इस पोस्ट को जरूर पढ़े और इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें.

‘निराला’ जी की बेहतरीन कवितायें | Best Poems of Suryakant Tripathi Nirala

नीचे दी गयी कविताएँ ‘निराला’ जी की “अनामिका” नामक कविता संग्रह से लिया गया हैं.

Kavita 1 – वह तोड़ती पत्थर | Vah Todatee Patthar

वह तोड़ती पत्थर;
देखा मैंने उसे इलाहाबाद के पथ पर-
वह तोड़ती पत्थर।

कोई न छायादार
पेड़ वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;
श्याम तन, भर बंधा यौवन,
नत नयन, प्रिय-कर्म-रत मन,
गुरु हथौड़ा हाथ,
करती बार-बार प्रहार:-
सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार।

चढ़ रही थी धूप;
गर्मियों के दिन,
दिवा का तमतमाता रूप;
उठी झुलसाती हुई लू
रुई ज्यों जलती हुई भू,
गर्द चिनगीं छा गई,
प्रायः हुई दुपहर :-
वह तोड़ती पत्थर।

देखते देखा मुझे तो एक बार
उस भवन की ओर देखा, छिन्नतार;
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं,
सजा सहज सितार,
सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार।

एक क्षण के बाद वह काँपी सुघर,
ढुलक माथे से गिरे सीकर,
लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा-
“मैं तोड़ती पत्थर।”

Kavita 2 – कहाँ देश है | Kahaan Desh Hai

अभी और है कितनी दूर तुम्हारा प्यारा देश?’
कभी पूछता हूँ तो तुम हँसती हो
प्रिय, सँभालती हुई कपोलों पर के कुंचित केश!

मुझे चढ़ाया बाँह पकड़ अपनी सुन्दर नौका पर,
फिर समझ न पाया, मधुर सुनाया कैसा वह संगीत
सहज-कमनीय-कण्ठ से गाकर!

मिलन-मुखर उस सोने के संगीत राज्य में
मैं विहार करता था,–
मेरा जीवन-श्रम हरता था;

मीठी थपकी क्षुब्ध हृदय में तान-तरंग लगाती
मुझे गोद पर ललित कल्पना की वह कभी झुलाती,
कभी जगाती;

जगकर पूछा, कहो कहाँ मैं आया?
हँसते हुए दूसरा ही गाना तब तुमने गाया!

भला बताओ क्यों केवल हँसती हो?–
क्यों गाती हो?
धीरे धीरे किस विदेश की ओर लिये जाती हो?

भाग २ | Part 2
झाँका खिड़की खोल तुम्हारी छोटी सी नौका पर,
व्याकुल थीं निस्सीम सिन्धु की ताल-तरंगें
गीत तुम्हारा सुनकर;
विकल हॄदय यह हुआ और जब पूछा मैंने
पकड़ तुम्हारे स्त्रस्त वस्त्र का छोर,
मौन इशारा किया उठा कर उँगली तुमने
धँसते पश्चिम सान्ध्य गगन में पीत तपन की ओर।

क्या वही तुम्हारा देश
उर्मि-मुखर इस सागर के उस पार–
कनक-किरण से छाया अस्तांचल का पश्चिम द्वार?
बताओ–वही?–जहाँ सागर के उस श्मशान में
आदिकाल से लेकर प्रतिदिवसावसान में
जलती प्रखर दिवाकर की वह एक चिता है,
और उधर फिर क्या है?

झुलसाता जल तरल अनल,
गलकर गिरता सा अम्बरतल,
है प्लावित कर जग को असीम रोदन लहराता;
खड़ी दिग्वधू, नयनों में दुख की है गाथा;
प्रबल वायु भरती है एक अधीर श्वास,
है करता अनय प्रलय का सा भर जलोच्छ्वास,
यह चारों ओर घोर संशयमय क्या होता है?
क्यों सारा संसार आज इतना रोता है?
जहाँ हो गया इस रोदन का शेष,
क्यों सखि, क्या है वहीं तुम्हारा देश?

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