साहब (नेताओ) के घर आजभी चमक-दमक रहे हैं.
भारत में कुछ नवजात बच्चे भूखे पल रहे हैं.
भारत के हम परिंदे, आसमां हैं हद हमारी,
जानते हैं चाँद-सूरज, जिद हमारी जद हमारी.
“स्वर्ग के सम्राट को जा कर ख़बर कर दे
रोज ही आकाश चढ़ते आ रहे हैं वो” (दिनकर).
करें तो किस से करें शिकवे , करें किस से गिले?
कहाँ चले थे, कहाँ पहुँचे हैं, कहाँ पे मिले.
चंद चेहरे लगेंगे अपने से, खुद को पर बेकरार मत करना,
आखरिश दिल्लगी लगी दिल पर? हम न कहते थे प्यार मत करना.
रंग ढूँढने निकले लोग जब कबीले के,
तितलियों ने मीलो तक रास्ते दिखाए थे.
हर इक बात को “चुप-चाप” क्यूँ सुना जाए,
कभी तो हौसला कर के “नही” कहा जाए.
जमी पे चल न सका, आसमान से भी गया,
कटा के पर को परिंदा उड़ान से भी गया.
काजल के पर्वत पर चढ़ना, और चढ़ कर पार उतरना,
बहुत कठिन हैं निष्कलंक रह करके ये सब करना.
अगर तू दोस्त हैं तो फिर ये खंजर क्यूँ हैं हाथो में,
अगर दुश्मन हैं तो आख़िर मेरा सिर क्यूँ नही जाता.
अक्सर वही “दीये” हाथों को जला देते हैं,
जिसको हम हवा से बचा रहे होते हैं.
लहरों को खामोश देखकर यह न समझना कि समंदर में रवानी नही हैं,
हम जब भी उठेंगे तूफ़ान बन कर उठेंगे, बस उठने की अभी ठानी नही हैं.
टूटी कलम और गैरो से जलन
हमे खुद का भाग्य लिखने नही देती.
कब्र की मिट्टी हाथ में लिए सोच रहा हूँ,
लोग मरते हैं तो गुरूर कहाँ जाता हैं.
मैं तो इस वास्ते चुप हूँ, कि तमाशा न बने,
और तू समझता हैं मुझे, तुझसे गिला कुछ भी नही…
दुनिया सलूक करती हैं हलवाई की तरह,
तुम भी उतारे जाओगे मलाई की तरह.
एक आँसू भी हुकूमत के लिए ख़तरा हैं,
तुम ने देखा नही आँखों का समन्दर होना.
अब जो बाजार में रखे हो, तो हैरत क्या हैं?
जो भी निकलेगा वो पूछेगा ही कीमत क्या हैं…