आत्ममुग्धता एक ऐसी बिमारी है जो कभी भी किसी को भी लग सकती है, यह खास कर उन व्यक्तियों के साथ होता है जो थोड़ी सी कामयाबी के बाद खुद को सर्वश्रेष्ठ समझने लगते है
और आलोचना सुनने की हिम्मत नहीं रख पाते है जब कोई इनके कामों की आलोचना करता है तो यह सहन नहीं कर पाते और उस व्यक्ति को खरी-खरी सुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.
आज के दौर में ऐसे व्यक्तियों की संख्या तेजी से वृद्धि हो रहा है जो हर समय अपनी तारीफ सुनना चाह रहा है उसे आलोचना सुनने की शक्ति क्षीण होती जा रही है जबकि उसे इस बात का पता होना चाहिए की बिना आलोचना सुने व्यक्ति अपनी कमियों को दूर नहीं कर सकता,जब हम आलोचना नहीं सुनेगें तो बहुत जल्दी आत्ममुग्धता का शिकार हो जायेगें इसलिए हमें आलोचना भी सुनने की आदत भी डाल लेनी चाहिए.
उदाहरण के तौर पर समझता हूँ जैसे अगर हम क्रिकेट मैच के शौक़ीन है तो देखते है कि कइयों बार ऐसे प्लेयर आते है जो पूरे एक सीरीज में बहुत अच्छा प्रदर्शन करते है लेकिन धीरे-धीरे उनका प्रदर्शन फीका पड़ने लगता है और आखिरकार टीम से बाहर हो जाते है ऐसा नहीं की ऐसे खिलाडियों के अंदर क्षमता नहीं होता है, होता तो ज़रूर है लेकिन ये खुद को आत्ममुग्धता से नहीं बचा पाते, विराट कोहली को ही लें लगातार 4 सीरीज में 4 दोहरा शतक लगाकर डॉन ब्रेडमैन के बराबरी की है लेकिन क्या अगर यही आत्ममुग्धता का शिकार होते तो ऐसा संभव हो पाता, बिलकुल भी नहीं लेकिन विराट कोहली ने खुद को संभाला है और इसलिए एक के बाद एक बेहतरीन पारी खेलते जा रहे है.
इस प्रसंग के माध्यम से बस यही संदेश देना चाहूँगा चाहे आप जितना भी सफल क्यों ना हो खुद को सर्वश्रेष्ठ ना समझे जिसे आप आत्ममुग्धता से बचे रहेंगें और हर रोज आगे बढ़ने के साथ कोई ना कोई मील का पत्थर खड़ा करेंगें जो आने वाले राहगीरों के लिए एक चुनौती होगी.