Jagannath Das Ratnakar Biography in Hindi – जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ आधुनिक युग के ब्रजभाषा के सुकवि थे. इन्होंने मानव-हृदय के कोने-कोने को झाँककर भावों को ऐसे चित्र प्रस्तुत किये है कि हृदय गदगद हो उठता हैं.
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का जीवन परिचय | Jagannath Das Ratnakar Biography
नाम – जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’
जन्मतिथि – 1886
जन्म स्थान – काशी (वाराणसी), उत्तरप्रदेश, भारत
पिता का नाम – पुरूषोत्तमदास
मृत्युतिथि – 21 जून, 1932
मृत्युस्थान – हरिद्वार
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ का जन्म सन् 1886 ई. में काशी में एक वैश्य-परिवार में हुआ था. रत्नाकरजी के पिता पुरूषोत्तम; भारतेंदु हरिश्चन्द्र के समकालीन और फ़ारसी भाषा के अच्छे ज्ञाता तथा हिंदी के परम प्रेमी थे.
रत्नाकरजी की शिक्षा का प्रारम्भ उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के ज्ञान से हुआ. उन्होंने छठे वर्ष में हिंदी और आठवें वर्ष में अंग्रेजी का अध्ययन प्रारम्भ किया. स्कूल की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् इन्होंने क्वींस कॉलेज, बनारस में प्रवेश लिया. सन् 1891 ई. में इन्होंने बी. ए. की डिग्री प्राप्त की. सन् 1900 ई. में रत्नाकरजी की नियुक्ति आवागढ़ ( एटा ) के खजाने के निरीक्षक के रूप में हुई. दो वर्ष पश्चात् ये वहाँ से त्यागपत्र देकर चले आये तथा सन् 1902 ई. में अयोध्या-नरेश प्रतापनारायण सिंह के निजी सचीव नियुक्त हुए. अयोध्या-नरेश की मृत्यु के बाद रत्नाकरजी महारानी के निजी-सचिव के रूप में कार्य करने लगे और सन् 1928 ई. तक इसी पद पर आसीन रहे. 21 जून, सन् 1932 ई. में इनका हरिद्वार में स्वर्गवास हो गया.
राज्याश्रय में अपनी काव्य-प्रतिभा का विकास करने के पश्चात् भी रत्नाकर जी के काव्य में मात्र भावुकता एवं आश्रयदाताओं की प्रशस्ति ही नहीं है, वरन इनके काव्य में व्यापक सहृदयता का परिचय भी मिलता है. इन्होंने ‘साहित्य-सुधानिधि’ और ‘सरस्वती’ के सम्पादन में योगदान दिया. इन्होने ‘रसिक मंडल’ के संचालन तथा ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना एवं विकास में योगदान दिया. इनका काव्य-सौष्ठव एवं काव्य-संगठन नूतन तथा मौलिक है. इन्हें काव्य के मर्मस्थलों की गहरी पहचान थी और इन्होंने उसके भावपक्ष के मर्म को उत्कृष्ट स्वरूप पदान किया. रत्नाकरजी की काव्य-प्रतिभा में युगीन प्रभाव तथा आधुनिकता का भी कुछ संस्पर्श है और वह समकालीन कवियों अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ और मैथिलीशरण गुप्त की भांति उनकी कथा-काव्य रचना में भी दृष्टिगोचर होता है. रत्नाकरजी के मुक्तकों में पौराणिक विषयों से लेकर देशभक्ति की आधुनिक भावनाओं तक को वाणी प्रदान की गई है.
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ की रचनाएँ | Jagannath Das Ratnakar works
रत्नाकरजी ने पद्य और गद्य दोनों हो विधाओं में साहित्य-सर्जना की. ये मूलतः कवि थे, अतएव इनकी पद्य-रचनाएँ ही आधिक प्रसिद्ध हैं. इनकी रचनाओं का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है.
हिंडोला – यह सौ रोला छंदों का अध्यात्मपरक श्रृंगारिक काव्य है.
समालोचनादर्श – यह अंग्रेजी कवी पोप के समालोचना सम्बन्धी प्रसिद्ध काव्य-ग्रन्थ ‘एसेज ऑन क्रिटिसिज्म’ का हिंदी अनुवाद हैं.
हरिश्चन्द्र – यह चार सर्गों का खंडकाव्य है, जो भारतेंदुजी के ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक पर आधारित हैं.
कलकाशी – यह 142 रोला छन्दों का वर्णनात्मक प्रबंध-काव्य है, जो कि अपूर्ण है. यह प्रसिद्ध धार्मिक नगरी काशी से सम्बन्धित है.
श्रृंगारलहरी – इसमें श्रृंगारपरक 168 कवित्त-सवैये हैं.
गंगालहरी और विष्णुलहरी – ये दोनों रचनाये 52-52 छंदों के भक्ति विषयक काव्य है.
रत्नाष्टक – इसमें देवताओं, महापुरूषों और षडऋतुओ से सम्बन्धित 16 अष्टक संकलित हैं.
वीराष्टक – यह ऐतिहासिक वीरों और वीरांगनाओ से सम्बन्धित 14 अष्टको का संग्रह हैं.
प्रकीर्ण पद्यावली – इसमें फुटकर छंदों का संग्रह किया गया हैं.
गंगावतरण – यह गंगावतरण से सम्बन्धित 13 सर्गो का आख्यान प्रबंध-काव्य हैं.
उद्धव-शतक – यह घनाक्षरी छंद से लिखित प्रबंध-मुक्तक-दूतकाव्य है.
इनके अतिरिक्त रत्नाकरजी ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन भी किया है, जिनके नाम है – सुधाकर, कविकुलकंठाभरण, दीप-प्रकाश, सुंदर-श्रृंगार, नखशिख, हम्मीर हठ, रस-विनोद, समस्यापूर्ति, हिम-तरंगिनी, सुजानसागर, विहारी-रत्नाकर और सूरसागर
अन्य रोचक बातें जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ के बारें में | Other Interesting Facts about Jagannath Das Ratnakar
- बीच इन्होंने ‘बिहारी रत्नाकर( Bihari Ratnakar )‘ नाम से बिहारी सतसई का संपादन किया.
- 14 मई सन् 1921 ई. से अयोध्या की महारानी की प्रेरणा से इन्होंने ‘गंगावतरण‘ नामक काव्य की रचना प्रारंभ की, जो सन् 1923 ई. में समाप्त हुई थी.
- हरिद्वार यात्रा में एक बार इनकी पेटी खो गई जिनमें इनके ‘उद्धव शतक’ के सौ सवा सौ छंद चोरी हो गये.
- ‘उद्धव शतक‘ इनकी बेहतरीन रचना है.
जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’ की मृत्यु | Jagannath Das Ratnakar Death
‘रत्नाकर‘ जी की मृत्यु हरिद्वार में, 21 जून, सन् 1932 ई. में हुआ. रत्नाकरजी हिंदी के उन जगमगाते रत्नों में से एक हैं, जिनकी आभा चिरकाल तक बनी रहेगी. अपने व्यक्तित्व तथा अपनी मान्यताओं को इन्होंने काव्य में सफल वाणी प्रदान की.
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