Best Poem of Anupama Anushri – इस पोस्ट में “अनुपमा अनुश्री जी” की कुछ बेहतरीन रचनाएँ दी गयी हैं. आशा करता हूँ आपको जरूर पसंद आएँगी. इन रचनाओं एवं कविताओं को जरूर पढ़े और शेयर करें.
वक्त | Waqt Beautiful Poem By Anupama Anushri
वक़्त सदियों से सदियों तक
वक़्त ने नहीं छोड़ा किसी को
कितना शक्तिशाली
अहसास करा देता है सभी को।
वक़्त की इनायत हो जो कभी
बौना बन जाये ,पहाड़ सा विशाल
कभी किसी के लिए
एक पल में ढेरों सवाल
अनसुलझे -अनबूझे प्रश्न
और बेज़ारों सा हाल।
गुमनामी का कहर या सफलता का शिखर
एक एक पल की कहानी है कहता
पलों के रथ पर सवार
वक़्त है अनवरत बहता।
एक पल कभी सदियों पर भारी
सदियाँ गुज़रती इंतज़ार में कभी
वक़्त न मित्र न शत्रु किसी का
फिर भी किसी के हाथों में हाथ दे
तो छीन ले कभी साथ किसी का।
वक़्त के पन्नों पर लिखी, अनगिनत कहानी
कभी इसकी , कभी उसकी ज़ुबानी
वक़्त की मेहरबानी
तो सब ठीक वरना बेमानी।
अरमानों के रंग , ख़्वाबों के किले
वक़्त का साथ मिले तो खिले
वरना रेत की तरह फ़िसले
वक़्त के अजीब ये सिलसिले।
वक़्त चाहे तो दिखा दे दिन में तारे
कई राजे – महाराजे हो गए बंजारे
एक वक़्त है पर्वत सा अविचल
बाक़ी सब जाता है ढल
वक़्त सदियों से सदियों तक
बस यही सच है अटल।
@अनुपमा अनुश्री।
बुलबुल तुम चहचहाओ | Bulbul Tum Chahchahao
बुलबुल तुम चहचहाओ
हमेशा गुनगुनाओ
जग में प्रेम बरसाओ
क्यों है यह पुरुष दरिंदे
और कबूतर बाज़ !
इनकी थोड़ी सी अक़्ल
ठिकाने लगाओ।
घुट घुट कर ना रहो
अंधेरी गुफाओं में ,कमरों में
बाहर निकलो और इनको
इनके दुष्कर्मों की सज़ा दे जाओ।
दुर्गा -काली बन कर
शक्तिशाली बनकर
अपने अपमान को करने वाले
को जड़ से मिटाओ।
@अनुपमा अनुश्री।
सामां किराए का | Saman Kirae Ka
जब खु़द के साथ नहीं होते ,
कितने अजूबे होते हो ,
भ्रम में भूले हुए ,
कोई शगूफे़ होते हो।
जैसे नटबाज़ी करता
हुआ कोई नट
परायी ताल पर
थिरकते जमूरे होते हो।
किस अजनबीयत से
छूती हैं मेरी नज़रें तुम्हें
जब गुज़रती हैं
नज़दीक से
देखकर तुम्हारे
तमाशे अजीब से
जब खु़द ही खु़द को
भूले हुए होते हो।
यह सामां किराए का
है या उधार का
लग रहा जो प्यारा
उठा लाए हो समेट
लौटा दो वापस
कहां ले जाओगे
यह बोझ सारा
पाकर इन्हें भी
अन्जाने ख़ालीपन में
डूबे हुए होते हो ।
@अनुपमा अनुश्री
शिकायत | Shikayat Poem By Anupama Anushri
यहां हर किसी को
किसी से शिकायत है
शिकायत की भी ,
एक हक़ीक़त है
ख़ुद पहल ना करना,
दूसरों से अपेक्षा
वर्षों पुरानी आदत है।
शिकायतों का दौर है
लेकिन वक़्त का कहां ठौर है
लम्हें घंटों में, घंटे दिनों में
दिन सालों में बदल जाते हैं
लेकिन शिकायती, दूसरे बदलें
इस अपेक्षा में ख़ुद,
को वहीं खड़ा पाते हैं ।
शिकायत सिस्टम से
लोगों से, चीज़ों से
बड़ी लंबी है, यह फ़ेहरिस्त
कभी इस तरफ तो
कभी उस तरफ इंगित
अगर ख़ुद में झांके,
तो शायद ख़ुद से ही
बहुत कुछ अपेक्षित ।
ख़ुद बदलना इनको कहां है गवारा
दूसरे बदलें, इनका यही है नारा
शिकायत करते ही गुज़रता है
उनका वक़्त सारा
हमने सुना है जैसी हो नज़र
वैसा है नज़ारा
बदलते दृष्टिकोण से
बदला नज़र आता है जहां सारा ।
@अनुपमा अनुश्री
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