रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
जब हर इक शहर बलाओं का ठिकाना बन जाए
क्या ख़बर कौन कहाँ किस का निशाना बन जाए
बैठे थे लोग पहलू-ब-पहलू पिए हुए
इक हम थे तेरी बज़्म में आँसू पिए हुए
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे
ऐसा है कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते
अब क्या सोचें क्या हालात थे किस कारन ये ज़हर पिया है
हम ने उस के शहर को छोड़ा और आँखों को मूँद लिया है
दिल-गिरफ़्ता ही सही बज़्म सजा ली जाए
याद-ए-जानाँ से कोई शाम न ख़ाली जाए
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला
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