पंडित दीनदयाल उपाध्याय की जीवनी | Pandit Deendayal Upadhyay Biography in Hindi

Pandit Deendayal Upadhyay Biography in Hindi – पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक महान चिंतक और संगठनकर्ता थे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप से प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्मक मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्याय जी नितांत सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरूचि थी। केवल एक बैठक में ही चंद्रगुप्त नाटक लिख दिया था।

जीवन परिचय

पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सिंतबर 1926 दिन सोमवार ( आश्विन कृष्ण त्रयोदशी, संवत 1973 ) को मथुरा जिले में ब्रज की पावन धरती पर नगला चंद्रभान नामक गाँव में हुआ था। उनका पूरा नाम दीनदयाल उपाध्याय था लेकिन घर के लोग उन्हें दीन कहकर बुलाते थे। उनकी माँ श्रीमती रामप्यारी एक धार्मिक विचारों वाली महिला थी। उनके पिता श्री भगवती प्रसाद, जेलसर में रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर थे। उनके परदादा, पंडित हरिराम उपाध्याय एक प्रसिद्ध ज्योतिषी थे।

बाल्यकाल

उनके नाना पंडित चुन्नीलाल, जो धनकिया में स्टेशन मास्टर थे. जब उन्होंने एक ज्योतिषी को अपने नाती की कुंडली दिखाई तो उस ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की कि “यह लड़का एक महान विद्वान और विचारक, निःस्वार्थ कार्यकर्ता और एक अग्रणी राजनीतिज्ञ बनेगा – किन्तु वह शादी नहीं करेगा” उनके जन्म के दो साल बाद उनकी माँ श्रीमती रामप्यारी ने अपने दूसरे पुत्र शिवदयाल को जन्म दिया। तीन वर्ष से काम उम्र में उन्होंने अपने पिता श्री भगवती प्रसाद को खो दिया और जब वे सात वर्ष के थे, तो उनकी माँ ( 8 अगस्त, 1924 ) का स्वर्गवास हो गया.

उनकी माता जी की मृत्यु के दो वर्ष बाद उनके नाना पंड़ित चुन्नीलाल, अपने दोनों नातियों को आगरा जिले के फतेहपुर सीकरी के पास अपने गाँव गुड की मंडी में अपनी मृत बेटी की विरासत के रूप में लेकर आये. लेकिन उनका निधन भी सितम्बर 1926 में हो गया. दीनदयाल जी उस समय मात्र दस वर्ष के थे. इस प्रकार वह अपने माता-पिता नाना तीनों के प्रेम से वंचित रह गये.

कष्टपूर्ण जीवन और मृत्यदर्शन

वह अपने मामा के साथ रहने लगे. दीनदयाल की मामी ने दोनों भाईयों को अपने बच्चों की तरह पाला। उन अनाथों के लिए मामी के रूप में माँ दुबारा मिल गई. जब दीनदयाल जी नौवीं कक्षा में और अपने अठारहवें वर्ष में थे, तब उनके छोटे भाई शिवदयाल को चेचक हो गया. दीनदयाल जी ने शिवदयाल के जीवन को बचाने के लिए उस समय उपलब्ध सभी उपचार कराकर अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया, लेकिन शिवदयाल का भी निधन 18 नवंबर 1934 को हो गया. इस तरह दीनदयाल जी अब दुनिया में अकेले रह गये.

बाद में वे सीकर में हाईस्कूल में पढ़ने लगे। सीकर के महाराजा ने पंड़ित जी को स्वर्ण पदक दिया, 250 रुपये पुस्तकों के लिए और 10 रूपये मासिक छात्रवृति प्रदान की. पंडित जी ने पिलानी में इंटरमीडिएट परीक्षा विशेष प्रतिभा के साथ उत्तीर्ण की और अपनी बी. ए. की पढ़ाई के लिए कानपुर चले आये और सनातन धर्म कॉलेज में दाखिला लिया। अपने दोस्त श्री बलवंत महाशब्दे 1937 में आर. आर. एस. की मीटिंग में गए और इसमें शामिल हो गए.

कॉलेज जीवन

वर्ष 1939 में सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से प्रथम श्रेणी में बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण की. एम.ए. अंग्रेजी साहित्य में करने के लिए सेंट जोन्स कॉलेज आगरा में प्रवेश लिया। एम. ए. प्रथम वर्ष में उन्हें प्रथम श्रेणी के अंक मिले। मामा जी के बहुत आग्रह पर वे प्रशासनिक परीक्षा में बैठे, उत्तीर्ण भी हुए. साक्षात्कार में भी चुन लिए गए, परन्तु उन्हें प्रशासनिक नौकरी में कोई रुचि नहीं थी.

कुशाग्र बुद्धि के स्वामी

वे अपनी चाची के कहने पर सरकार द्वारा आयोजित एक प्रतियोगी परीक्षा में धोती और कुर्ता, सिर पर टोपी पहन परीक्षा केंद्र पर पहुँचे, जबकि अन्य उम्मीदवार पश्चिमी सूट पहनकर गए थे. मजाक में अन्य उम्मीदवारों ने उन्हें “पंड़ित जी” कहकर पुकारा – एक पदवी जिससे बाद के वर्षों में उन्हें लाखों लोग आदर और सम्मान के साथ बुलाते थे. इस परीक्षा में उन्होंने टॉप किया। अपने चाचा की अनुमति के साथ वे बी.टी. करने के लिए प्रयाग चले गए. बी. टी. पूरा होने के बाद, उन्होंने नौकरी नहीं की. उन्होंने आर. एस. एस. के लिए पूर्णकालिक कार्य किया और यूपी के लखीमपुर जिले में संगठन के सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगे 1955 में उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रांतीय आर्गेनाइजर ( Organizer ) बने.

बेजोड़ लेखक और सम्पादक

पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने लखनऊ में पब्लिशिंग हाउस “राष्ट्र धर्म प्रकाशन” की स्थापना की और मासिक पत्रिका ” राष्ट्र धर्म ” का शुभारम्भ किया, ताकि वे अपने सिद्धांतों का प्रचार कर सकें। बाद में उन्होंने एक साप्ताहिक “पाञ्चजन्य” की शुरूआत की और फिर बाद में दैनिक ‘स्वदेश‘ भी शुरू किया। वर्ष 1950 में केंद्र में तत्कालीन मंत्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने नेहरू-लियाकत पैक्ट का विरोध किया और अपने कैबिनेट पद से इस्तीफ़ा दे दिया और लोकतांत्रिक ताकतों का एक आम मोर्चा बनाने के लिए विपक्ष में शामिल हो गए. डॉ. मुखर्जी ने राजनीतिक स्तर पर काम करने के लिए समर्पित युवा पुरूषों को संगठित करने के लिए दीनदयाल जी की मदद ली.

पंड़ित दीनदयाल जी ने 21 सितम्बर, 1951 को उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक सम्मेलन का आयोजन किया और नई पार्टी “अखिल भारतीय जनसंघ” की राज्य इकाई की स्थापना की, जिसके वे संगठन मंत्री बनाये गए. वर्ष 1953 में उपाध्याय जी अखिल भारतीय जनसंघ के महामंत्री बने और 15 वर्षों तक इस पद पर रहे. पंड़ित दीनदयाल जी चलते-फिरते यानी गतिशील विचार पुंज थे.

सच्चे राष्ट्रभक्त

पंड़ित दीनदयाल जी कालीकट अधिवेशन ( दिसंबर 1967 ) में अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. उन्होंने कलकत्ता के अधिवेशन में हजारों प्रतिनिधियों को निम्नलिखित भाषण से अभिभूत कर दिया, उनके शब्द आज भी प्रासंगिक और अनुपम है.

” हम किसी भी ख़ास समुदाय या वर्ग, बल्कि सम्पूर्ण देश प्रति वचनबद्ध हैं. हर देशवासी का खून हमारा है और हमारे शरीर का मांस है. हम तब तक आराम नहीं करेंगे जब तक हम हर एक भारतवासी में इस गर्व की भावना को जगा नहीं देते, कि वे भारत माता की संतान है. हम यदि चाहे तो अपने वास्तविक अर्थों में माँ भारती को सुजलां और सुफलां बना सकते है. दशप्रहाराना धारिणी दुर्गा यदि देवी दुर्गा अपने 10 अस्त्रों सहित बुराई सक्षम होंगी; लक्ष्मी के रूप में वह समृद्धि लाने सक्षम होंगी और सरस्वती के रूप में वह अज्ञानता की उदासी को दूर करेंगी और ज्ञान की ज्योति चारों तरफ फ़ैल रही होंगी। चिर विजय पर विश्वास के साथ, आइये हम अपने आप को इस कार्य के लिए समर्पित करें। “

वे सिर्फ 44 दिनों तक अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे. यही जनसंघ बाद में चलकर भारतीय जनता पार्टी बनी।

मृत्यु

जब वे 11 फरवरी, 1968 की रात में अखिल भारतीय जनसंघ की कार्यकारिणी की बैठक में शामिल होने के लिए पटना जा रहे थे, तो अचानक मौत के आगोश में समा गये और उन्हें संदेहास्पद परिस्थितयों में मुगल सराय रेलवे यार्ड में मृत पाया गया. वर्तमान समय में मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम पं॰ दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन ( PT. Deen Dayal Upadhyaya Junction ) है.

राजनैतिक जीवन दर्शन

संस्कृतिनिष्ठा दीनदयाल जी के द्वारा राजनैतिक जीवन दर्शन का पहला सूत्र है, उनके शब्दों में

“भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन है. उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है. इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है. इस संस्कृति निष्ठा रहे भी भारत एकात्म रहेगा“. “वसुधैव कुटुंबकम” हमारी सभ्यता से प्रचलित है. इसी के अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त है.

प्रमुख कृतियाँ

दो योजनाएँ, राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन, जगद्गुरू शंकराचार्य, एकात्म मानववाद, राष्ट्र जीवन की दिशा, सम्राट चन्द्रगुप्त ( नाटक ) इनकी प्रमुख कृतियाँ है.

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