Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi | राजा राम मोहन रॉय की जीवनी

Raja Ram Mohan Roy Biography in Hindi – राम मोहन रॉय को ‘भारतीय पुनर्जागरण का पिता’ कहा जाता हैं. ये ब्रह्म समाज ( Brahm Samaj ) के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, जनजागरण और सामजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोंनो क्षेत्रो में गति प्रदान की.

Raja Ram Mohan Roy Biography | राजा राम मोहन रॉय की जीवनी

नाम – राजा राममोहन रॉय ( Raja Ram Mohan Roy )
जन्मतिथि – 22 मई, 1772
जन्मस्थल – बंगाल के हुगली जिले के राधानगर गाँव में
माता का नाम – तैरिनी
पिता का नाम – रामकंतो रॉय
पेशा – ईस्ट इंडिया कम्पनी में कार्य, जमीदारी और सामजिक क्रान्ति के प्रेरक
प्रसिद्धि का कारण – सती प्रथा, बाल विवाह और बहु विवाह का विरोध
पत्रिकाएं – ब्रह्मोनिकल पत्रिका, सम्बाद कौमुडियान्द मिरत-उल-अकबर
उपलब्धि – इनके प्रयासों से 1829 में सती प्रथा पर कानूनी रोक लग गई
मृत्युतिथि – 22 सितम्बर, 1833

राममोहन रॉय जन्म बंगाल के राधानगर में एक बंगाली ब्राह्मण कुल हुआ था. उनके पूर्वज जागीरदार थे और बंगाल के नवाबों के यहाँ सेवा करते थे और उन्हें उपाधियाँ मिली हुई थी. राम मोहन ने आरम्भिक शिक्षा अपने ही नगर में प्राप्त की और बंगला, फ़ारसी और संस्कृत में पर्याप्त कौशल प्राप्त कर लिया. 1790 में वह उत्तरी भारत के भ्रमण पर गये और उन्होंने बौद्ध सिद्धांतो से परिचित हो गये. अपनी उदारवादी शिक्षा से राम मोहन हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म और इस्लाम धर्म के सिद्धांतो से परिचित हो गये. 1803 में राम मोहन कम्पनी की सेवा में नियुक्त किये गये और दिग्बी ( Digby ) के साथ दीवान के रूप में काम करने लगे. दिग्बी महोदय ने उन्हें अंग्रेजी सिखाई और उनका परिचय उदारवादी और युक्तियुक्त विचारधारा से करवाया. 1814 में राम मोहन कलकत्ता में बस गये और लोक सेवा और सुधार के एक गौरवमय जीवन का आरम्भ किया.

भारतीय समाज ने पाश्चात्य सभ्यता के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भिन्न रूप से व्यक्त की थी. एक ओर तो पुरानी परम्परा के लोग थे – जिनमें राजे, रजवाड़े और धार्मिक कट्टरपन्थी थे जो पाश्चात्य विचारधारा की सभी बातों में, तथा अंग्रेजी नीतियों में केवल अनिष्ट ही अनिष्ट देखते थे. दूसरी ओर बंगाली अतिवादी ( Bengali Radicals ) थे जिन्हें लोग प्रायः तरूण बंगाल ( Young Bengal ) दल भी कहते थे, जो अंग्रेजी पढ़े-लिखों की पहली सीढ़ी थी – जो पाश्चात्य विचार, सामजिक मूल्यों, इसाईयत इत्यादि के प्रति बहुत श्रद्धा रखती थी और भारतीय संस्कृति और धर्म के प्रति घृणा रखने लगी थी. राम मोहन रॉय ने दोनों के बीच का मार्ग चुना. वह पाश्चात्य युक्तियुक्त विचार ( Rationalism ), वैज्ञानिक विचारधारा, मानव सेवा ( Humanitarianism ) के प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे परन्तु भारतीय संस्कृत और धर्म के प्रति भी अनदेखी करने को उद्यत नहीं थे. पादरी प्रचारको ( Christian Missionaries ) के प्रचार और दुर्वचन पूर्ण भाषा के प्रति उनकी प्रतिक्रिया बहुत कड़ी थी. उन्होंने “बंगाल हरकारू” नामक मासिक पत्रिका में लिखा, ” यदि प्रज्ञा की किरण ( Ray of Intelligence ) जिसके लिए हम अंग्रेजों के आभारी हैं”, से उनका तात्पर्य यांत्रिक कलाओं ( Mechanical Arts ) से हैं तो मैं सत्य ही उनके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने को तैयार हूँ परन्तु यदि वे विज्ञान, साहित्य और धर्म के क्षेत्र की बात करते हैं तो मैं किसी प्रकार का ऋणी नहीं हूँ क्योंकि इतिहास को देखने से हम सिद्ध कर सकते है कि संसार मेरे पूर्वजों के प्रति अधिक ऋणी हैं, ज्ञान के लिए, जो पूर्व में आरम्भ हुआ और बुद्धि की देवी की कृपा से हमारे पास एक दार्शनिक और विपुल भाषा हैं जो हमें उन देशों से भिन्न बना देती है जो वैज्ञानिक तथा भाववाची विचारों को प्रकट करने के लिए विदेशी भाषा की सहायता के बिना काम नहीं कर सकते.

राममोहन रॉय का भारत के आधुनिकीकरण में भूमिका | Rammohan Roy’s Role in Modernization of India

उनका ह्रदय पूर्व और पश्चिम के उत्तम तत्वों के समन्वय में लगा था जिसे वह समकालीन भारतीय स्थितियों में स्थापित करना चाहते थे. उन्हें सत्य ही भारत के आधुनिकीकरण के रूप में स्मरण किया जाता हैं. क्योंकि उनके अत्यधिक और भिन्न-भिन्न कार्यों से विशेष कर सामजिक तथा धार्मिक सुधारों के कारण, पश्चिमी शिक्षा पद्धति के प्रसार के लिए किये गये कार्य के कारण, नागरिक अधिकारों के समर्थन के कारण, समाचारपत्र की स्वतंत्रता के समर्थन, संसार में संवैधानिक आंदोलनों के समर्थन के कारण – इस सभी के फलस्वरूप भारत में एक उदारवादी और विश्वमित्रता की भावना तथा आधुनिक विचारधारा का सूत्रपात हुआ.

उनका मुख्य उद्देश्य स्त्रियों के प्रति अधिक उत्तम व्यवहार प्राप्त करना था. अमानुषी सती प्रथा को समाप्त करवाने के लिए जो प्रयत्न उन्होंने किये वे इतने विश्वविख्यात है कि उनका विवरण यहाँ देने की आवश्यकता नहीं हैं. वह समकालीन लोगो से बहुत आगे थे. जब उन्होंने स्त्रियों के लिए पुनर्विवाह का अधिकार माँगा, तो उनके पक्ष में उत्तराधिकार के आधिकारों में भी परिवर्तन की मांग की. वे बाल विवाह और बहुपत्नी विवाहों को बंद करवाना चाहते थे. इससे अधिक वह उनकी शिक्षा के पक्ष में थे क्योंकि उसके बिना उनके समाज में अच्छा स्थान प्राप्त करने की बात नहीं सोची जा सकती थी.

उन्होंने जातिवाद पर भी प्रत्यक्ष प्रहार किया. उनके अनुसार जाति-पाति के कारण भारतीय समाज जड़ हो गया था और इससे लोगों की एकता तथा घनिष्ठता में बाधा पड़ती थी. इन अनगिनत विभाजनो के कारण देश-प्रेम की भावना उत्पन्न ही नहीं होती. राजा साहिब ने यह सुझाव दिया कि जाति-पाति के बन्धनों को हटाने के लिए शैव वैवाहिक पद्धति अपनानी चाहिए.

धर्म के मामले में उनके विचार उपयोगितावादी ( Utilitarian ) थे. लोग उन्हें धार्मिक बेन्थम अनुयायी ( Religious Benthamite ) कहते थे. वह धर्मों को भिन्न-भिन्न आधारभूत सत्यों से परखना नहीं चाहते थे अपितु उनके सामाजिक लाभ को देखते थे. उनका बल नैतिक और सामजिक तत्वों पर था जो सभी धर्मों में एक हैं. इसलिए वह सभी धर्मों की एकता पर बल देते थे. उनके विचारों ने “ब्रह्मा समाज” के रूप में अपने आपको प्रकट किया. ब्रह्मा समाज का उद्देश्य उस शाश्वत, अप्राप्य और अचल ईश्वर की पूजा था जो सभी धर्म कर सकते थे. जैसाकि ब्रह्मा समाज के प्रन्यास पत्र ( Trust Deed ) में स्पष्ट था, उनका उद्देश्य संसार के सभी धर्मों को जाति, मत, देश इत्यादि के बन्धनों से दूर, एक ईश्वर के चरणों में लाना था.

शिक्षा के क्षेत्र में वह अंग्रेजी शिक्षा के पक्ष में थे. उनके अनुसार एक उदारवादी पाश्चात्य शिक्षा ही अज्ञान के अन्धकार से हमें निकाल सकती है और भारतीयों को देश के प्रशासन में भाग दिला सकती है. इसी भावना से प्रेरित होकर उन्होंने लार्ड एमहर्स्ट ( Amherst ) को दिसम्बर 1823 को एक पत्र लिखा था, “यदि अंग्रेजी संसद की यह इच्छा है कि भारत अन्धकार में रहे तो संस्कृत शिक्षा से उत्तम कुछ नहीं हो सकता. परन्तु सरकार का उद्देश्य भारतीय लोगों को अच्छा बनाना है अतएव सरकार को एक उदारवादी शिक्षा का प्रसार करना चाहिए जिसमें गणित, सामान्य दर्शन, रसायन-शास्त्र, शरीर रचना तथा अन्य लाभदायक विज्ञान इत्यादि सम्मिलित हों और निश्चित धनराशि से विदेशों से कुछ विद्वान् भर्ती किया जाएं और यहाँ कॉलेज खोले जाएँ.

राजनैतिक क्षेत्र में उनका विचार था कि अंग्रेजी सम्राज्य एक वास्तविकता हैं और वह समझते थे कि यह भारत के विकास में एक पुनर्जन्म देने वाली शक्ति के रूप में कार्य करेगा. वास्तव में वह उन्नीसवीं शताब्दी के उदारवादी विचारकों के अग्रदूत थे. उनके अनुसार भारत को अंग्रेजी राज्य की कई वर्षो तक आवश्यकता रहेगी ताकि जिन दिनों वह अपनी राजनैतिक स्वतन्त्रता के लिए प्रयत्नशील हों, देश की अत्याधिक हानि न हो अर्थात उनके अनुसार अंग्रेजों के अधीन ही भारत नागरिक तथा राजनैतिक स्वतंत्रताए प्राप्त कर सकता है और सभ्य संसार में अपना स्थान प्राप्त कर सकता हैं.

उन्होंने उत्तरदायी सरकार की मांग नहीं की परन्तु प्रशासन में बहुत से सुधारों की आवश्यकता पर बल दिया जैसे कि अधिक अच्छी न्यायपालिका, कार्यकारिणी का न्यायपालिका से पृथकीकरण, भारतीयों की सेवाओं में भर्ती और समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता इत्यादि.

Latest Articles