पण्डित दीनदयाल उपाध्याय – एक नयी विचारधारा

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय (Pandit Deendayal Upadhyay) एक महान व्यक्ति थे जो भारत की सनातन विचारधारा कोनये युग के अनुसार प्रस्तुत किये और देश को “एकात्म मानववाद” जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी. उपाध्याय जी एक महान चिंतक, राजनीतिज्ञ थे. उनका स्वभाव बड़ा ही सरल एवं सौम्य था. साहित्य में वो काफी रुचि लेते थे और उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे.

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय का संक्षिप्त जीवन परिचय (A brief introduction to Pandit Deendayal Upadhyay)

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में “भारत में रहनेवाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं . उनकी जीवन प्रणाली ,कला , साहित्य , दर्शन सब भारतीय संस्कृति है इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है . इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा.”

जन्म – 25 सितम्बर 1916
जन्म स्थान – मथुरा
मृत्यु – 11 फ़रवरी 1968
मृत्यु का कारण – स्वतन्त्र भारत में मुगलसराय के आसपास रेल में हत्या
माता – रामप्यारी
पिता – भगवती प्रसाद उपाध्याय
रचनाएँ – दो योजनाएँ , राजनीतिक डायरी, भारतीय अर्थनीति का अवमूल्यन , सम्राट चन्द्रगुप्त , जगद्गुरु शंकराचार्य, एकात्म मानववाद, राष्ट्र जीवन की दिशा, एक प्रेम कथा आदि
राजनीतिक दल – भारतीय जनसंघ
धर्म – हिन्दू

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय की शिक्षा एवं कार्य संक्षिप्त में (In brief, the education and work of Pandit Deendayal Upadhyay)

  1. 10वीं और 12वीं दोनों ही परीक्षा में गोल्ड मैडल
  2. बीए कानपुर विश्वविद्यालय से किये
  3. सिविल सेवा परीक्षा में पास हुए परन्तु उसे त्याग दिया.
  4. 1937 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये.
  5. 1942 में पूरी तरह आर.एस.एस. से जुड़ गये और संघ के लिए काम करना शुरू कर दिया.
  6. राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य, स्वदेशी आदि पत्र-पत्रिकाएँ शुरू की.
  7. 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने उत्तर प्रदेश में जनसंघ की स्थापना की, जिसमें उपाध्याय जी को महासचिव बनाया गया.

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय कोट्स (Pandit Deendayal Upadhyay Quotes)

  1. जब स्वाभाव को धर्म के सिद्धांतो के अनुसार बदला जाता हैं, तब हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होती हैं.
  2. जीवन में विविधता और बहुलता हैं, पर सदैव एकता की खोज करने का प्रयास करना चाहिए.
  3. लोकतंत्र न बहुमत का शासन हैं न अल्पमत का, वह जनता की सामान्य इच्छा का शासन हैं.
  4. भारत जिन मुश्किलों का सामना कर रहा हैं, उसका प्रमुख कारण इसकी राष्ट्रीय पहचान की उपेक्षा करना हैं.
  5. राजनीति के लिए राष्ट्रीयता नही, राष्ट्रीयता के पोषण के लिए राजनीति होनी चाहिए. वह राजनीति जो राष्ट्र को क्षीण कर अवांछनीय रहेगी.
  6. मानव की प्रगति का अर्थ शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा इन चारों की प्रगति हैं.
  7. सबसे जरूरी है कि हम हमारी राष्ट्रीय पहचान के बारे में सोचें जिसके बिना आजदी का कोई अर्थ नही होता.
  8. जब राज्य राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों का अधिग्रहण कर लेता हैं तो इसका परिणाम धर्म का पतन होता हैं.

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