कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग
हम को जीने की भी उम्मीद नहीं
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उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा,
धूल चहेरे पे थी और आईना साफ़ करता रहा
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आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए
साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
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‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
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ज़िंदगी में तो वो महफ़िल से उठा देते थे
देखूँ अब मर गए पर कौन उठाता है मुझे
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