अब तो बरस जा – कविता

एक बार आकर देख कैसा, ह्रदय विदारक मंजर है
पसलियों से लग गयीं हैं आंतें, खेत अभी भी बंजर है

टकटकी बाँध तकती निगाहों पर, तनिक तो तरस खा
बहुत हुई परीक्षा रे मेघा, अब तो बरस जा

सूखी घास, सूखे पौधे, छाँव वाले वृक्ष भी सूखे हैं
निर्जन हैं खेत, जीव जन्तु, पंक्षी भी भूखे हैं

इस से पहले कि सूख जाये आँखो का पानी, तनिक तो तरस खा
बहुत हुई परीक्षा रे मेघा, अब तो बरस जा

न पंक्षी चहकते हैं, न ही कोयल गाती है
दरारें पड़ीं धरा के सीने में, दहकती पवन तन जलाती है

बिना काल ये अकाल क्यों है, क्रोध में महाकाल क्यों है
जल से जीवित जीवन पर, तनिक तो तरस खा
बहुत हुई परीक्षा रे मेघा, अब तो बरस जा

मृत्यु कर रही है तांडव, बिखरे अस्थि पंजर हैं
नदियाँ सिमटी अंजलि में, उमड़े रेत के समन्दर हैं

अभी भी आशा की डोर पकड़ी सांसों पर, तनिक तो तरस खा
बहुत हुई परीक्षा रे मेघा, अब तो बरस जा !!!

#कवि डा. हरेन्द्र चाहर

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